Menu
blogid : 12407 postid : 584805

मेरी रामनामी (उत्तरार्द्ध)

अंतर्नाद
अंतर्नाद
  • 64 Posts
  • 1122 Comments

मेरी रामनामी

(उत्तरार्द्ध)


मन्दिरों-मूर्तियों के निर्दशन में ऐसी कलाकृतियों की अधिकता खटक जाती है, जो या तो बे-मन से गढ़ी गई हैं या आवश्यकता से अधिक बनाव-ठनाववाली हैं |  हाल ही के वर्षों में बना ‘श्रीमद् वाल्मीकि रामायण भवन’ इस धार्मिक नगरी की स्थापत्य-परम्परा में नवीनतम उत्कृष्ट संयोग है | इसमें रामायण के सातों काण्ड उत्कीर्ण हैं | स्पष्टतः पढ़े जा सकते हैं | संदर्भ-चित्रों एवं ललित रंगाभरणों से सुसज्जित इस विशाल मन्दिर के पश्च भाग में श्वेत-स्निग्ध प्रतिमाओं के रूप में अपने ऋषिगुरु वाल्मीकि के साथ सजीव-से खड़े किसलय-वय धनुर्धर लव-कुश आँखों के तारे ही लगते हैं | जितना ही देखिए, उतना ही देखने का मन होता है | ‘मानस ट्रस्ट भवन’ में राम, सीता और लक्ष्मण की स्मित-मुद्राएँ काव्यों में वर्णित उनके लोकोत्तर सौन्दर्य का विश्वास दिलाती हैं | ‘अमावाँ राजमन्दिर’ में पाषाण की कठोरता में सुयसी सिया सहित चारों भैया के नाक-नक्श सुघर, शीतल चन्द्र के समान अप्रितम हो गए हैं | ऐसी ही प्यारी मूर्ति राधा-माधव की भी इसी मन्दिर में है | मुरली मुरलीधर के अधरों पर है, किन्तु उसके स्वर-विवरवाले भाग पर कन्हइया जू की अँगुलियाँ ही नहीं, उनकी अंक-लगी पार्श्ववर्तिनी प्रिया की दोनों हाथों की अँगुलियाँ भी हैं | क्यों न हों, उनके उच्छलित ह्रदय से फूटता वंशीगत स्वर-संभार राधा जू के सरगम-साहाय्य से ही तो सुमधुर होता है ! कनक भवन की शबरी आज भी भृकुटी पर हथेली टिकाए, प्रभुदर्शन की साध में ताकती खड़ी है—एकाग्रचित्त-सी प्रेमयोग की मधुमती भूमिका में, जैसे कोई निश्चलव्रता प्राण-पाहुन का बाट जोह रही हो |


जैन मन्दिर में बत्तीस फुट की बड़ी मूर्ति, जो खड़ी मुद्रा में है, पूर्णतः नग्न है | जिसे अशिक्षित जन भगवान बुद्ध की समझते हैं और अर्धशिक्षित लोग महावीर की बताते हैं | परन्तु है वह प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की, आदिनाथ की | इसका उल्लेख मन्दिर के प्रवेश-द्वार पर ही मिल जाता है | वैसे तो इस मन्दिर में अन्य तीर्थंकरों की दिगम्बर मूर्तियाँ भी हैं, किन्तु वे मुख्य मूर्ति की तुलना में इतनी छोटी हैं कि सामान्य दर्शन-दृष्टि में गौण हो जाती हैं | यहाँ मूर्तियों की स्थूल नग्नता-दिगम्बरता जितेन्द्रिय वर्धमान की चरम उपलब्धि का प्रचार ही है, जिसे देखकर प्रायः औरतें अधिक हँसती-मुस्कराती हैं | यह मुझे नग्नता का सामाजिक प्रत्युत्तर समझ में आता है | शारीरिक-मानसिक विचलन का अनुभाव जान पड़ता है | कहा जा सकता है, तो फिर दर्शकों के पाँच-सात वर्षीय बच्चे क्यों हँसते-ठठाते हैं ! मैं कहूँगा, यह समाज का सीखता-पलता बचकाना संस्कार है, सामाजिक अनुकरण है | कहते हैं, कठोर तप करते हुए महावीर स्वामी एक वर्ष और एक मास तक एक ही वस्त्र धारण किए रहे | उसके जीर्ण-शीर्ण होकर गिर जाने पर, वे नग्न होकर ही मग्न रहते, तपस्या करते तथा नग्न ही विचरते | बालकों आदि के झुण्ड उनके पीछे दौड़ते-चिढ़ाते, हल्ला मचाते, लोग मारते-पीटते भी, परन्तु वे मौन ही रहते, शांत ही रहते | और सर्वथा निर्बाध-निर्बंध, सर्वथा निराश्रय-निर्लिप्त, सर्वथा शुद्ध, सर्वथा एकाकी एवं स्वतन्त्र जीवन ही बिताते | फिर वर्षों की कठिन तपश्चर्या के उपरान्त एक दिन ऐसा भी आया कि वे समस्त रागद्वेषादि मनोविकारों पर विजय प्राप्त करने में सफल हो गए | उनकी अन्त: और बाह्य दोनों दृष्टियाँ परिपूर्ण हो गईं, परिशुद्ध हो गईं | आज उन्हीं जिनों की मूर्तित दिगम्बरता का, उनके नैसर्गिक व्यसन-वसन का सब मखौल करते हैं, ठिठोली उड़ाते हैं | याद करने लगता हूँ, रूसो की उस प्राकृतिक तद्रूप इच्छा को, जो सुखी होने की ललक में फिर से अज्ञान, भोलेपन और निर्धनता की याचना करती है | याद करने लगता हूँ, आदिम जातीय नग्न स्त्री-पुरुषों के उस चित्र को, जिसे पोर्टब्लेयर से लौटे मेरे एक सहपाठी ने अपने ही कैमरे का खींचा बताकर दिखाया था | वहाँ अध्यापक-पद के लिए साक्षात्कार में गए थे | बताते थे, प्रकृति की खुली गोद में रहने वाले ये नग्न नर-नारी आदम-हव्वा-जैसे निष्कलुष ही होते हैं | कुछ अच्छाइयाँ तो इनमें इतनी ऊँची होती हैं, जो हम भव्यता-भोगियों के हाथ ही नहीं आतीं, जिन्हें हम छू भी नहीं सकते |


तुलसी-उद्यान में एक हाथ खण्डित हो जाने से पुरानी, सीधी आदमकद मूर्ति की जगह प्रतिस्थापित तुलसी की नई अ-तुलसी-मूर्ति, जो आसनबद्ध है, दूर से तो वाल्मीकि की मूर्ति-सी लगती है, किन्तु निकट जाने पर न तुलसी की, न वाल्मीकि की | गांधी जी ने, ऐसा नहीं कि कभी ठाट-बाट के कपड़े न पहने हों, जूता-जुर्राब न चढ़ाए हों | किन्तु जो गांधी हमारे चित्त में बार-बार चित्रित होते हैं, वे अन्य गांधी नहीं, मात्र धोती पहने, अधनंगे, अस्थि-पिंजर-से, लकुटी टेकते चलते महात्मा गांधी ही होते हैं | ऐसे ही हमारे ह्रदय में कोई और तुलसी नहीं, गोस्वामी तुलसीदास ही दृढ़ होने चाहिए, जो मानस-जैसे काव्यरत्नाकर और विनयपत्रिका-जैसी कवितामंदाकिनी की रचना कर चुके हों | जो भक्ति के, जो शब्द के, जो लोक-मांगल्य के ऊर्ध्व साधन में यथेष्ठत: ऊपर उठ चुके हों | रामनाम की पूरी ‘परतीति’ सजोए, दाढ़ी-मूँछ मुण्डित, सिर-मुण्डित भद्रता —

“तुलसी की बाजी राखी राम ही के नाम, न तु

भेंट पितरन को न मुड़हू में बारु है |”

(कवितावली, 7/67)

कि मुझ तुलसी की हार-जीत का दाँव रामनाम ने ही लगा रक्खा है, नहीं तो मेरे पास पितरों को भेंट चढ़ाने के लिए सिर पर बाल भी नहीं है — जिनकी प्रौढ़-वृद्ध अवस्था को रुचने-फबने लगी हो | इस दाढ़ी-बालवाली, इस जटा-जूटवाली मूर्ति में गोस्वामी जी के व्यक्तित्व का संभ्रम देख रहा हूँ या मेरी दृष्टि में ही दोष है, किससे कहूँ, कैसे कहूँ !


कभी भावभरित सीता की क्रीड़ा-लालसा और महाबाहु राम की आज्ञा से खगश्रेष्ठ गरुण ने एक मनोहर मणिमय पर्वत लाकर, विद्याकुण्ड के समीप पश्चिम दिशा में स्थापित किया था | अपने विश्रुत मणियुक्त रूप में तो वह रह नहीं गया, पर उसकी ऊँचाई से रघुवीरपुरी का दर्शन और ही आनंद देता है–एक-साथ, एक ही दृष्टि में, सर्वांग समेटता हुआ | समष्टि रूप से पतली-सी सरयू, उसका उत्तरवर्ती तट-प्रांतर और सुदूर दिखती वनस्पतियों, ग्राम्य बस्तियों का धुँधला आभास, नदी के दोनों किनारे गड़े बिजली के विशाल खम्भे, छोटे-बड़े मन्दिर, घर-बार और बीच-बीच के पेड़-पौधे सब एक सुखद दृश्य-संकरी की रचना करते हैं | निश्चित ही सूर्योदय और सूर्यास्त के समय ये दुगुना नेत्र-लाभ देते होंगे | सुना हूँ, हनुमानगढ़ी के ऊपरी छत से भी ऐसा ही दिखाई देता है | पर वह नगर के लगभग बीच में स्थित है; इसलिए दृश्य-चित्र चतुर्दिक और कुछ दूसरे ढंग का ही बनता होगा | जबकि मणिपर्वत शहर से कुछ अलग-थलग ही पड़ता है |


प्रतिवर्ष का यह रामझूला मणिपर्वत से ही आरम्भ होता है | श्रावण सुदी की मधुश्रवा तृतीया, जिसे अवधवासी जानकी-तीज के रूप में जानते-मानते हैं, को विभिन्न मन्दिरों की रामपालकियाँ वहाँ उतरती हैं | मूर्तियों के रूप में या सजे-सजाए किशोरों के रूप में अनेक राम-जानकी-युगल अनेक झूलों में झूलते हैं, झुलाए जाते हैं | किन्तु वे झूले वहीं समाप्त हो जाते हैं और पालकियाँ यथास्थान लौट आती हैं | फिर उसी दिन से, उसी मंगल-विधायक युगल को, उसी युगल के रूप-स्वरुप को झुलाने-मल्हारने के लिए धूम-धाम के साथ आती हैं, शेष विभावरियाँ, जो एक पखवारे से नाच-गा रहीं हैं, अनिद्र रजनियाँ, जो आज विदा हो रहीं हैं; सलोनी-सजीली झिलमिलाती झाँकियाँ, जो कल नहीं रहेंगी, जो आज बहुत सजी हैं | आज की यह पूनम तो उस पीहर जाती नववधू-सी चितवन-राग जगा रही है, जिसके वंकिम नयन-बान से ह्रदय-उदधि आंदोलित हो उठता है, जिसके सूक्ष्म नेत्र-संकेत किसी चोखी-मूक गाँस की करोदती हूक छोड़ जाते हैं | तबलों के मसृण ठेके, घुँघरूओं की क्षिप्र छमक, लीलाओं के रसमत्त मंचन, भाव-भजन के रसोद्रेक, रामनाम-रटन के आरोह-अवरोह आज सब अति के तान पर हैं | कई शत वर्ष बीते, भले ही दीपमालिकाओं का स्थान विद्दुत्मालाओं ने ले लिया है, पर समूची अयोध्या का चित्रबिंब बहुत कुछ गीतावली-सा ही है | राजसदन के सामने वाले मैदान में गड़ा ऊँचा चर्खी झूला देख, यह दृश्य —

“झुण्ड-झुण्ड झूलन चलीं, गजगामिन वर नारि |

कुसुंभि चीर तनु सोहहीं, भूषन बिबिध अपार |”

(गीतावली, 7/19/4)

साकार हो उठता है | चढ़ती-उतरती, झूलती नव नारियों को, उनके हिंडोल-चक्र को, वह भी इस राम-धाम में भक्त कवि को बिसारकर मैं नहीं देखता, देख ही नहीं पाता |


पर किसी भी मन्दिर में, मैं जैसे ही रामझाँकी से, रामहिंडोले से, उसके झूलन-दोलन से, राम-सीता के ऐसे सुख-समाज से,ऐसी मधुरोपासना से और ऐसे वैभव-विलास से साक्षात होता हूँ, मेरी कल्पना से सारी यथावत् चित्रावली धूल-धूल हो जाती है । तब मुझे एक ओर अशोक-वन की विरह-व्यथित-तन्वी, क्षरित-मेघ-नयनी, मलिन मुखी, खिन्न सीता की सुधि आती है और दूसरी ओर वन-वन भटकते, लता-विटप से, खग-मृग से, भ्रमर-निकर से खोई जानकी का अता-पता पूछ्ते, रह-रहकर बिलखते अधीर राम की या फिर उस निरीह, निर्वासित, आपद्सत्वा वैदेही की, जो घोर-घनान्ध विपिन में निस्सहाय, अकेली, सिसकती विलप रही हों और उस श्लथ-शुष्क-तन, स्थिर-सुदूर-नयन, विकल मन, मौन बैठे यज्ञरत कौशलेय की, जिनके वाम भाग में कोई दूसरी परिणीता नहीं, स्वर्ण-प्रतिमूर्ति- सीता ही स्थान पाती हों | जन्मभूमि से लेकर गुप्तारघाट तक के बस यही आर्द्र चरित्र मेरी स्मृति में बार-बार आने लगते हैं । आ-आकर आँखों के सामने उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं, चित्त में पैठने-समाने लगते हैं । तब सावन मेले की सारी चहक-चमक फीकी लगने लगती है। मन उचटकर एकांत चाहने लगता है । भीड़ काटने लगती है। और बने-ठने मठाधीशों की, रामनामी ओढ़े रामभक्तों की विभवशालिनी मुस्कराहट जहर-सी लगती है, मुझे फाड़ खाती है ।


तब मैं राम के, सीता के, लक्ष्मण के, उनके वेदना-विह्वल क्षणों के, उनकी व्यथा-विक्षत गाथा के और अधिक सन्निकट हो जाता हूँ । उनकी पीड़ा, उनकी पीड़ायुक्त अंतर्भुक्ति, उनके आँसू ही भोगना चाहता हूँ , उनके सुख, उनके सुख-निनाद नहीं, उनके वियोग, उनके वन, उनके वनवास को ही, उनके संताप को ही । तब मेरी रामनामी, मेरी हृद-रामनामी, मेरे अन्तस् की पीड़ा-पिछौरी और अधिक सत्व-संपुष्ट, और अधिक तंतु-संहृत, और अधिक रंगीन हो जाती है । और मैं और अधिक करुण हो जाता हूँ ।         … ( पूर्वार्द्ध *)


— संतलाल करुण

*पूर्वार्द्ध  देखें …https://www.jagran.com/blogs/karunsantlal/2013/08/22/%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%80-           %E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D/

Read Comments

    Post a comment