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मेरी रामनामी (पूर्वार्द्ध)

अंतर्नाद
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मेरी रामनामी

(पूवार्द्ध)


मुखड़े पर मन की उछाह छहराता, आँखों में विश्वास की फेरी फेरता और ह्रदय में श्रद्धा-भक्ति के झोंके झकोरता लाखों का झमेला अयोध्या के सावन-झूले में झूम रहा है | छोटी छावनी हो या बड़ी जगह, रामकोट हो या लक्ष्मणकिला, श्रृंगारहाट हो या सरयूघाट– लोगों की दर्शनाभिलाषा देखते ही बनती है | हनुमानगढ़ी प्रसाद चढ़ाना हो या नागेश्वरनाथ जल, चाहे जन्मभूमि आस्था-द्रव अथवा छूँछे ही रमना हो– भीड़ का ताँता सर्वत्र है | नर-नारी, बालक-वृद्ध, साधु-संन्यासी, भिखारी-व्यापारी सब इस राममेले में रुचि-रुचि रमते विचर रहे हैं | राम ही इस महा समागम के सम्यक विन्दु-विस्तार हैं; वही मुझे भी छेड़ रहे हैं और उन्हीं की विन्दुता-विराटता में डूबता-उतराता यह सारा जनातिरेक भी ऊभ-चूभ हो रहा है– अपने बहु आयाम-बहु आपाधापी के उपरान्त भी, अपनी बहु बाँही-बहु सोनजुही के साथ भी |


किसी के संग जीती-जागती लक्ष्मी विहँस रही है, तो किसी के हाथ बढ़े कटोरे में टके की लक्ष्मी खनक रही है और वह भिनभिनाती मखियाँ बटोरे, घिनौना परिवेश सजाए, कातर किन्तु कृत्रिम पुकार में गिड़गिड़ा रहा है; सूखे-मरे आँसुओं में बिलबिला रहा है | कोई घेंचा ताने, राग-तान-सन्नद्ध, गाने-बजाने में लीन है, तो कोई मूड़ी उठाए, देखने-सुनने में तल्लीन | आला अफसर अधिकतर जीप-कार में ही झलकते हैं | उतरते भी हैं, किन्तु सब जगह नहीं, जहाँ उनका वैभवी कैम्प है, रुपहली सज्जा है | ये भारी भरकम खचाखच्च-ठेलपेल, जितनी कुछ है उतनी तो है ही, स्पीकरों से लोगों के भूलने-खोने की सूचनाएँ, अभ्यास-पगे प्रवचनों की उर्जस्वित ध्वनियाँ और टेप-रटे, भक्ति-भीने गीत-संगीत मेले को और अधिक मेला बनाते प्रतीत होते हैं; जैसे अदृश्य सरगर्मी की फैलती परिधियाँ, जैसे रागमयी संस्कृति के श्रव्य उन्मीलन, जैसे विश्व के, या छोटे-से विश्व के, या विश्व के सारभूत के कुछ हुलसते-किलकते, कुछ दबते-बैठते, उड़ते कहकहे |


यह विष्णु-चक्र पर अवस्थित, वैकुण्ठलोक की अयोध्यानन्दिनी अयोध्या नहीं है, जो कभी आदि प्रजापति के याचक हाथों, आदि संस्था की झँगुली पहने उतरी थी, उतारी गई थी, भूतल पर आई थी | लोक-नियमन के प्रथम आयास में लोक-वरेण्या राजनगरी-सी रचाई-बसाई गई थी | देवशिल्पी विश्वकर्मा की कलापटुता द्वारा निर्मित हुई थी | यह परिमिति प्रीति-रीतिवाली रामकालिक सुहावनी अयोध्या भी नहीं है, जो सर्व कल्याणी, सर्व चिन्मयी बताई जाती है | मुझे तो यह बहुत कुछ रुद्रयामलीय लगती है, तुलसीकृत लगती है | क्रूर काल ने, कालकवलित जिजीविषा ने इसमें इतना बदलाव ला दिया है कि बूढ़ा इतिहास इसे तरेर-तरेरकर देखता है; जैसे किसी अनजानी-अनपहचानी को देखता हो | फिर भी, यह आज भी पुण्यपरायणी ही है, नरकनिर्मुक्ता ही है, विघ्न-विनाशिनी ही है | यह कितनी र्रौंदी गई, मैली-कुचैली की गई, यह कितनी सजाई-सँवारी गई, अपनी व्यथा, अपने हर्ष-विषाद का अनुबोध लिये यही जानती है, यही जानेगी भी | पर कुछ-कुछ मैं भी समझ-बूझ गया हूँ, कुछ-कुछ मैं भी जानने लगा हूँ | इस पुरिवरा, इस विमला के अन्तरंग-बहिरंग की सह्य-असह्य सुषमा-ऊष्मा, इसके अंचल से खेलते सौन्दर्य-असौन्दर्य, खिलते-चुभते कोंपल-कंटक कोई आज नए का नहीं, वर्षों से देख रहा हूँ |


निकला तो हूँ, आज भी इसकी शोभा-समृद्धि ही देखने, इसकी बरसाती रंगरलियाँ ही निहारने, पर कैसे कहूँ कि निकृष्ट मनुष्यता की दुर्गन्ध यहाँ नहीं है, ऐहिक अधमता की सँड़ाध यहाँ नहीं है | भीतर-भीतर रामभक्तों के गुप्त आचरण से, चोटी-जनेऊ-तिलक-कण्ठी–छापा-जाप-चपरास आदि के छिपे छलावों से मंदिरों की सूक्ष्मता इतनी अविश्वस्त है कि यदा-कदा रहस्य उघड़े अमानवीय परिदृश्य ह्रदय चीर देते हैं; और बाहर-बाहर अवधवासियों के नैत्यिक व्यवहार से, दर्शनार्थियों की अनगढ़ भीड़-भाड़ से गली कूँचों की स्थूलता इतनी गंदली है, इतनी घिनावनी है कि कहीं-कहीं तो मन बहुत ही बिदक जाता है | छल-दंभ के, प्रपंच के, मोह-माया आदि के सारे-के-सारे बहुरूपिए यहाँ भी चढ़ा-उपरी करते एकजुट हैं | दिन भर के थके-माँदे संतप्त सूर्य की भाँति दौड़-धूप करते, भागते भौतिक मनुष्य को यहाँ आकर संत्रास-त्राण की जितनी श्यामल, सुकोमल और शीतल छाया मिलनी चाहिए, उतनी का अधिकांश तो जैसे है ही नहीं और जो कुछ है भी, वह भी अमल नहीं, वह भी विशुद्ध नहीं |


वनजीवी, पर्वतजीवी मानवजातियों को हेय दृष्टि से देखने वाले, प्रकृति की ममता से दूर होते हम चमक-धमक के नागरिकों की सुसंस्कृत जीवनचर्या और प्रशासन की युद्ध-स्तर की कर्मशीलता कहीं-कहीं तो इतनी प्रतिफलित है कि साँस लेना भी दूभर हो जाता है और आँखें मूँदना-खोलना भी ! किन्तु ऐसी गलियों में साधारण जनता ही घूमती नज़र आती है | बड़े लोग तो बड़े स्थानों, बड़े मन्दिरों में ही उतरते-देखते हैं | अधिकतर सीधे-सादे ग्रामीण जन ही सभी छोटी-बड़ी सड़कों, गन्दी-साफ गलियों में घूमते नहीं अघाते; क्योंकि उनके अवलोकन में सारी अयोध्या राममय जो है; उनकी अज्ञानता में भले-बुरे का उतना भेद जो नहीं है ! तभी तो इस मिट्टी में समोई जयगाथा, इस दिग्-दिगन्त से आभासित तपश्चरित्र उन्हें उतने ही पवित्र, पारदर्शी और सुवासित लगते है, जितने कि लगने ही चाहिए, जितने कि हमें नहीं लगते |


साँवली साँझ उतरने लगी है | साँवला सावन मनुहार कि आँखें झपकाने लगा है | साकेत-सम्राज्ञी साँवले रघुवर के साथ मन्दिर-मन्दिर हिंडोले चढ़ी झूल रही हैं | मैं अपने मन झूल रहा हूँ | सरयू-पुल पर खड़ा हूँ | कुछ दिख रहा है, कुछ देख रहा हूँ | और नयन के डोरों में पिरो रहा हूँ–निसर्ग की तंद्रिल छवि-छटा को, अयोध्या की पावन प्रभा को, उसके प्राणद प्राण को, उसकी सजलता-तरलता को, उसकी सुसरिता को या दूसरी अयोध्या को | मन न जाने कैसा हो चला है ! कहता है, जिसने यहाँ की शुभ संध्या, यहाँ के प्रिय प्रभात का तदास्वाद न लिया, समझो अयोध्या देखी ही नहीं | समय के निर्मम आवर्त में, सदैव के लिए, अयोध्या का बहुत कुछ सो गया, बहुत कुछ मिट गया, बहुत कुछ सूख गया | परन्तु यह शेष स्रोतस्विनी अवध का सर्वस्व निचोड़े, जो बीत गया उसे भी रसमोए, जो बीतेगा उसे भी सहने-भिगोने, आत्मसात करने की साध लिए, दुबली-पतली कृशगात हो-होकर भी हर साश्रु-सुहेले सावन में छलछला उठती है, हर भाव-भरे भादों में उमग आती है | आज तक बची है; आज भी हरी-भरी है | बस यही सरयू, यही रामगंगा ही तो बची-खुची अयोध्या है | बस केवल इसी ने ही तो मन-वचन से, कर्म से राम के सित-श्यामल स्वरूप को सहेजा है, सिरजा है | बस यही तो है, जो निष्ठुर परिवर्तन की निरंतर मार खाती हुई आज भी राम की सर्वात्मार्द्र निस्पृह दृष्टि से अनुरक्त है, संसिक्त है | श्री सरयू मुख से ही निकला यह प्रकथन —

“विष्णुनेत्रसमुत्पन्ना रामं कुक्षौ विभम्यर्यहम् |”

(रुद्र्यामालतंत्र, अयोध्याखण्ड, 3/63)

कि मैं श्री विष्णु के नेत्र से उत्पन्न हुई हूँ और श्री राम को कुक्षि में धारण किए रहती हूँ– स्मरण होते ही सुदूर, विह्वल आकाश में डबडबाते भगवन्नेत्र उभर आते हैं तथा सरयू के समुज्ज्वल अंचल में नील सरोरुह राम की श्यामता उतराने लगती है | उस रामचन्द्र में, उस लोलते-हिल्लोलते चन्द्र में मन भिंच-भिंच जाता है, तर-बतर हो जाता है, नील-नील हो जाता है |


नदी के उत्तरी कूल की ओर दूर-दूर तक फैली वर्षाकालीन हरीतिमा, जो कहीं-कहीं झाउओं के पुष्पित-से कत्थई अलंकरण से लदी है, जो कुछ ही सप्ताह में, भाद्रपद के उतरते-उतरते, काँस के फूलों से अपने बुढ़ापे की केशांचित श्वेत सौम्यता प्रकट करने लगेगी; दिक्सुन्दरी संध्या के आँचल में मुख छिपाते दिवाश्रांत सूर्य के पीले-ललौहें, रतिमुद्रित लावण्य को देख, आलक्तक हो रही हिलोरों की सलज्ज पदावली, जो किसी के बुला रहे, अभिमंत्रित अगाध अभिसार में तिरती-थिरकती, भागी चली जा रही है; और घाट के मन्दिरों का सघन विविघुत-प्रकाश, जो दक्षिण-कूल की जल-राशि में बिंबित-रेखित अच्छाभ-सा झिलमिला रहा है–निहारते रहने से स्वयं की बोझिल सत्ता हल्की, शून्य-सी होने लगती है | इसी साल गर्मियों की किसी साँझ, इसी सरयू-सेतु से मुझे दीपदान की लम्बी-बिरंगी, अविस्मरणीय कतार दिखी थी, पर आज नहीं है | बुझ तो वह उसी दिन गई थी, मेरे देखते-देखते ही; परन्तु उसे भूल नहीं पाया हूँ | वह तैरती शुचि, सुदीप्त सरणि, वह जल-करतल की गतिमयी घुतिमाला, आज भी मेरी अन्तस्सलिला में उसी तरह, उसी अभिरामता की श्री-साधे, प्रज्वलित है | किन्तु जानता हूँ, एक दिन वह भी बुझेगी, एक दिन उसके ज्योति-प्रयाण का भी अंत होगा, मेरी लौ-लहर के साथ, निस्सारता के अनंतरित सत्य में, महासत्य में या अपनी सिद्धि में |


सांध्य वेला में भी कुछ लोग डुबकी लगा रहे हैं | स्नान का आनंद ले रहे हैं | एक मैं हूँ, मेरे इर्द-गिर्द भी हैं, ऐसे ही और बहुत से हैं, जो उन्हें नहाते देख, दूर खड़े अनभीगे ही आनन्दित हैं | किन्तु उनके दरस-परस के गोते, उनके नमन-निमज्जन की निकटता पारलौकिक न सही, लौकिक ही सही, हमसे अधिक सफल है, हमसे अधिक पूर्ण है | कोई भोली-भाली जान पड़ती नारी अंजलि में तरल तरंगे यत्न से लोढ़ती है, यत्न से माथे चढ़ाती है, फिर नहाती आमोदमग्न होती है; और वहीं पूसी चाँदनी-सी लगती कुछ अधुनातन युवतियाँ, जो अपावन जल में नहाना तो दूर प्रसाधनलिप्त मुख भी पखारें तो कैसे पखारें, उसकी निर्मल सहजता का उपहास-सा करती उचकती हैं ! जिसे वे निम्नतर समझ रही हैं, क्या उसके इस प्रकार ज्ञात-अज्ञात सौन्दर्य के प्रति प्रणमन में, प्रकृति से उसके ऐसे लिपटने-भेंटने में नारी-सुलभ सात्विक उद्भावना व्यक्त नहीं होती ! या उनके भारी लिबास ने, अर्जित स्वच्छन्दता ने, चिकने मेक-अप ने उनके ही बिन सिंगारे सिंगारवाले नारी-निखार को दबोच नहीं लिया है ! किसी माने में उससे भी निम्नतर नहीं बना दिया है ! उनके अभिनव के ऐसे अहं को, ऐसे नवीन संस्कार को वास्तविक शांति का छोर छूटने की त्रासदी कहूँ, उनकी ऐसी नवागत प्रतिक्रिया को नई नारी का प्रमाद कहूँ तो क्या बेजा है !


तट पर पण्डों के अपने-अपने घाट, अपने-अपने झण्डे, सिग्नल या साइनबोर्ड बहुत हैं | कुछ दाल, कुछ चावल मिले, हल्केसतनजाकेपिसान भरे बोरे, द्रुत-अशुद्ध मंत्रोच्चारण, कोई खेद रहा है पंडिज्जी को ! पर इतने कुछ से ही जब इतना सब मिलता है, तो कर्मकाण्ड की निष्ठा कैसी ! पूँछ पकड़े किसी और से हँसते-बतियाते यजमान महाशय ही कहाँ स्थिरचित्त हैं ! चक्कर केवल परलोक सुधारने की औपचरिकता भर का है | थोड़ी देर में ही कई को वैतरणी का आश्वासन देने वाली दुबली-मल्लही बछिया उदास है | पता नहीं क्या सोचे जा रही है ! उसका पिचका पेट रुपये-पैसे का थैला भरते पण्डे-पुजारियों के तुंदिल उदरों से स्पर्धा नहीं कर पाता | लगता है, उसका इस श्रावण-मास से, इस सरयू-तीर से, इस दान-पुण्य से कोई हार्दिक अनुबंध नहीं है | उसका गलफंद, उसकी पगही उसके कटु यथार्थ का ही, उसकी भाग्यहीन विवशता का ही प्रतीक है, जो इतना निर्दय हो गया है कि उसके दुःख का हिस्सा छोड़, उसके सुख की साझेदारी ही बँटा रहा है | कल आधी रात से भी ऊपर का समय रहा होगा, इन्हीं घाटों के उस पूर्वी सिरे की ओर किसी की प्रशम-प्रगाढ़ निद्रा आलोकित हो रही थी | बसेरे के रौरव-कलरव बीच पता नहीं क्या ले-देकर, किसी पंचभूत पिंजड़े का पंछी उड़ गया था | ठाट की सूनी ठटरी सरयू का सानिध्य पाकर भी, उसके शीतल समीरण में भी मान-वियोग के दाह में जली जा रही है | एक अजीब-सी नीरव पीड़ा मेरे अन्तस्तल की गहराई नापने लगी | वह क्षण-दो-क्षण में ही अपना काम कर गई | फिर मुझे लगा, उस अकेली चिता की उन्मुख, उदग्र, लपलपाती लपटें अपने प्रियजन-परिजन को, विकट श्मशान को, उसकी अंधवर्ती निशीथिनी को और जैसे मुझको भी किसी चरम, सुर्ख सत्य की झलक दिखा रही हैं | मृण्मय संसार की वह अंतिम पावक-वेदिका, नश्वरता की वह अंतिम अग्निशिखा वैराग्यसंदीपिनी-सी जैसे कुछ कह रही थी– कुछ सुनने-गुनने लायक बातें, कुछ रहस्य के तथ्य, कुछ जीवनगत मूलमंत्र | पर उनींदी आँखें गन्तव्य की ओर बढ़ती रहीं, हम रुके नहीं, सब कुछ अनबूझ पहेली समझ अपनी राह चलते चले गए; उस फक्कड़ अपरिचित बटोही की तरह, जो लाख हाँक लगाने, गोहराने पर भी नहीं लौटता, नहीं सुनता |                                                                                … (अवशिष्ट- उत्तरार्द्ध*)


—  संतलाल करुण

*उत्तरार्द्ध देखें …https://www.jagran.com/blogs/karunsantlal/2013/08/22/%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%80-%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D/

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