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Contest हिन्दी ग़रीबों और अनपढ़ों की भाषा बनकर रह गयी है (?)

अंतर्नाद
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हिन्दी ग़रीबों और अनपढ़ों की भाषा बनकर रह गयी है (?)


जैसे कन्या-भ्रूण की हत्या इस देश में घटित होती है या फिर नारी-जीवन को आजीवन बंधन में रखने, तड़पाने, तड़पा-तड़पाकर मारने, जलाने आदि की घटनाएँ आम हैं, उसी तरह यहाँ घरवालों और बाहरी दोनों के दुर्व्यवहार से पीड़ित हिन्दी का उद्भव और विकास उसके जन्म-काल से अब तक बाधाग्रस्त रहा है |


1025-26 ई. में मुहम्मद गजनवी के आक्रमण तथा सोमनाथ मंदिर के विध्वंश की ऐतिहासिक घटना के आस-पास की सामयिकता में हिन्दी का उद्भव हुआ | बलात्कारी घटनाओं से शंकित भारतीय कन्याओं की तरह 1191 ई. में मुहम्मद गौरी के तराइन-युद्ध, 1398  ई. में तैमूर लंग के नर-संहार और 1519  ई. में बाबर के हमले-जैसे अत्यंत दूषित वातावरण में हिन्दी का बालपन आगे बढ़ा |  अंतस्तल की उदारता और काया के लचीलेपन से हिन्दी जन-जन के हृदय में स्थान बनाती गई, तब भी 1526  ई. में मुग़ल वंश की स्थापना के साथ राजकाज की भाषा अधिकृत रूप से फ़ारसी हो गई और आगे अनेक मुगलवंशी बादशाहों के काल में राजदरबार की भाषा और लिपि फ़ारसी ही रही | मुगलों की छावनियों में जब हिन्दी की नई शैली के रूप में उर्दू का जन्म और विकास हुआ तथा उसे राजदरबार की भाषा-जैसा दर्ज़ा दिया जाने लगा, तो उसकी भी लिपि फ़ारसी ही रही |


1857 ई. की क्रांति के पश्चात् 1861 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के ब्रिटिश-तंत्र में समाहित होते ही करोड़ों भारतीयों की अनदेखी करते हुए अंग्रेज़ी को ब्रिटिश-सरकार द्वारा भारत की राजभाषा घोषित कर दिया गया | 16वीं शताब्दी के मध्य से जो संक्रमण शुरू हुआ था, वह 20वीं शताब्दी के मध्य तक चलता रहा और लगभग 400 वर्षों तक हिन्दी राजकीय कोप का शिकार रही; उसका विकास क्रूरतापूर्वक अवरुद्ध किया जाता रहा |


1947 ई. में देश की स्वतंत्रता के साथ ऐसा लगा कि स्वतंत्रता-संग्राम की  वाणी हिन्दी का अब नया सूरज उगने वाला है, किन्तु महज़ ढाई वर्ष बाद, जैसे ही 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया; सारा स्वप्न धूल-धूसरित हो गया और कहने के लिए तो अंग्रेज़ी को भारतीय संविधान में द्वितीय राजभाषा का स्थान दिया गया; परन्तु भारत के ही सपूतों द्वारा व्यवहार में अंग्रेज़ी को राजकाज का सिरमौर बनाकर हिन्दी को वंचित कर दिया गया | तब से स्वतंत्रता के विगत 66 वर्षों से इस देश की कन्याओं-युवतियों के प्रति दुराचार की समस्या के समान हिन्दी के कंटकाकीर्ण मार्ग का प्रश्न अनुत्तरित चला आ रहा है |


शासन की ओर से भीतर-भीतर उपेक्षा और ऊपर से दिखावे की रुचि के साथ हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा-राजभाषा और अनेक राज्यों की राजभाषा के रूप में संकुचित तो है; किन्तु यह देश की अधिसंख्यक जनता की ज़बान की भाषा है तथा पूरे भारत में अहिन्दी भाषी प्रदेशों के निवासियों द्वारा बड़े चाव से सम्पर्क-भाषा के रूप में अपनाई जाती है | यह ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, मारिशस, फीजी, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, सीमावर्ती नेपाल आदि देशों में बोल-चाल की भाषा के रूप में व्यवहृत होती है | बोल-चाल की दृष्टि से विश्व में इसका अंग्रेज़ी और चीनी के बाद तीसरा स्थान है | जैसे बँटवारे के बाद धूर्त-चालाक बेटे अधिकांश माल-असबाब लेकर अलग हो जाते हैं और बूढ़े माँ-बाप की सेवा-शुश्रूषा का दायित्व श्रवणकुमार-जैसा सीधा-सादा बेटा सँभालता है, वैसे ही हिन्दी का सौम्य, मृदु मातृत्व गरीब-अनपढ़-दलित-पीड़ित किन्तु सोंधी मिट्टी से जुड़े भारतीयों के हिस्से में अधिक आता है | मुट्ठी भर उच्च वर्ग हिन्दी के श्वास से ही साँस लेकर जीता है; किन्तु बाह्य भाषाई गुरुर में ऐंठा रहता है |


अंग्रेज़ी को भारत में सत्ता की सनक वाले अमीरों की कृत्रिम भाषा और गरीबों के लिए अभिशाप कहना असंगत नहीं है; किन्तु हिन्दी तो यहाँ सबकी भाषा है— ग़रीब-अमीर, अनपढ़-पढ़े-लिखे, शहरी-ग्रामीण, किसान-मज़दूर, शासक-प्रशासक, व्यापारी, उद्योगपति, नेता, अफ़सर आदि सब की | मन-बेमन से कमोबेश इसे हर कोई अपनाता है | भाषाओं में हिन्दी ही है, जो इस देश में सर्वात्मार्द्र है | ऐसे में जब आज जन-शक्ति देश की शक्ति सिद्ध हो रही है और उद्योग, व्यापार, बाज़ार आदि में जन-शक्ति को स्वीकार किया जा रहा है, तब देश की अभिव्यक्ति की प्रमुख माध्यम हिन्दी को ग़रीबों-अनपढ़ों की भाषा कहना सर्वथा अनुचित है |


1000 वर्षों का संघर्ष और अनेक शासन-तंत्रों का विरोध झेलती आ रही हिन्दी आज भी भिन्नता-भरे विशाल देश को प्राचीन तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं जैसे संस्कृत, तमिल, गुजराती, बंगला आदि के परस्पर आदान-प्रदान और सौहार्द से एक सूत्र में पिरोने का काम करती है | इसे अनपढ़ों और ग़रीबों की भाषा न कहकर श्रम-शक्ति, जन-शक्ति और भारत-जैसे महादेश का अंतर्जाल, रक्तवाहिनी और अंत:शक्ति कहना अधिक उपयुक्त है | इसकी अभिव्यक्ति में जीने से इस देश को जो मौलिकता और गौरव मिल सकता है, वह किसी अन्य भाषा से नहीं —


अनपढ़ और ग़रीब की भाषा क्यों कहते हो है हिन्दी

सबके होंठों पर है फ़बती, सबके हित की है हिन्दी |


— संतलाल करुण

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