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चाँद और सूरज दोनों में ग्रहण

अंतर्नाद
अंतर्नाद
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चाँद और सूरज दोनों में ग्रहण



चाँद और सूरज दोनों में ग्रहण-जैसा

काला कलंक है समलैंगिकता |


दुनिया में कुशाग्र बुद्धि

और हृदयवान जाति के

नर-मादाओं पर

पड़नेवाली यह भद्दी गाली

कितना दंश मारती है समूची मानवता को |


एक बहुत बड़ा आकाशीय

काला चश्मा पहने

यूरोप-अमेरिका की विराट आँखों ने

जब से दुनिया को देखा

ऐसी भद्दी गालियों की

बाढ़-सी आ गई |


उनकी विस्फारित

सेटेलाइट आँखों ने

खजुराहो में

बाहरी दीवारों पर उभरी

अनर्गल मैथुन-मूर्तियों को तो देखा

पर भीतर गर्भगृह में बैठे

शिव और उनकी शिवता तक

न पहुँच सकीं |


विश्वजेता चक्कर लगाने की

अहिर्निश कवायद के बाद

ज्ञान-विज्ञान-मनोविज्ञान की

इतनी आख्या-व्याख्या के बाद

आखिर, कितना दूर रह गया

अर्द्धनारीश्वर का अभिप्राय !


उल्टे मानव-निसर्ग के

कुछ लुके-छिपे, बीमार,

विषैले कीड़े-मकोड़े

जो सर्वजनीन हामी से

हमेशा बाहर फेंके जाते रहे

अपवादों के

कंधे चढ़, खड़े हो गए;

कुछ धुर काले, मुहँझौंसे,

कुलैंगिक भूत-विभूत

जो जीवन की

आम खुशनुमा गलबाँही से

सदैव निष्कासित थे

वीडीओ, कम्प्यूटर,

लैपटॉप, नोटपैड की स्क्रीन पर

एक साथ

डिस्को की तान में आ गए |


हद तो तब हो गई

जब यथावसर

समलैंगिक लैंगिक हो गए

और दिल्ली से

दूर-दराज़ के गाँवों तक की दूरी नाप ली

न दामिनी को छोड़ा

न गुड़िया को

न ही चंगुल में फँसी

किसी भी कमसिन

जवान या वृद्धा को |


नारी-जीवन ताज़ा काटे गए

बड़ी कुल्हाड़ी से चीरे-फाड़े गए

हरे पेड़ की

गीली जलौनी का

जहाँ-तहाँ बिखरा पड़ा ढेर हो गया;

मानवता हलाल की गई

ऊपर से हाड़-मांस,

खाल की दुर्गति झेलती

बूचड़-खम्भे से टँगी

सिर-कटी बकरी हो गई;

लेकिन वाशिंगटन से दिल्ली तक

मैले-कुचैले पृष्ठों पर

छल-कपट भरा

हस्ताक्षर करनेवाले नियंता

बस, ‘रेअर और रेअरे’स्ट’ पर

सविस्तार चर्चा करते रहे |


आज दिल्ली-चेन्नई

मुम्बई-कोलकाता ही नहीं

दूर-सुदूर गाँवों तक

कितने लैंगिक हो गए हैं

बच्चों से बूढ़ों तक के हाथ

कि उनके हाथों में

नए जनरेशन का मोबाइल है

और हाथों से निगाहों तक

महज़ एक चिप की बदौलत

मृत, पाषाणी नहीं, जीता-जागता-सा,

सचल, रंगीन, किन्तु शिवत्व-हीन

खजुराहो कुलाँचें भरता है |


और आज भी

चक्कर लगा रही हैं

यूरोपीय-अमेरिकन सेटेलाइट आँखें

खजुराहो के बाहरी

भूगोल का बार-बार |


और आज भी

लैंगिकों-समलैंगिकों की अंधी हवस में

बम-विस्फोट से

काँपती दिशाओं की तरह भयातुर

गिरती-पड़ती, बिलखती,

चीखती-चिल्लाती, गुहार लगा रहीं हैं

दामिनियाँ, गुड़ियाएँ

बहन-बेटी के उसी आर्त्तनाद में |


जबकि महामहिमों का कहना है

कि समाज को देखना होगा

कि समस्या की जड़ें आखिर कहाँ हैं !



—  संतलाल करुण

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