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सर्वोच्च न्यायालय की सर्वोच्च दृष्टि और समलैंगिकता
आखिर सर्वोच्च न्यायालय की सर्वोच्च दृष्टि समलैंगिकता पर पड़ ही गई | निर्णय सौ आने सही आया है कि समलैंगिकता दंडनीय आपराध है | पर बेहया को फिर भी शर्म नहीं आई, उल्टे उसमें भभका आ गया है | मुझे अपनी ही कविता ‘चाँद और सूरज दोनों में कलंक’ का स्मरण हो आया, जिसकी कुछ प्रासंगिक पंक्तियाँ यहाँ ध्यातव्य हैं –-
“चाँद और सूरज दोनों में ग्रहण-जैसा
काला कलंक है समलैंगिकता |
दुनिया में कुशाग्र बुद्धि
और हृदयवान जाति के
नर-मादाओं पर
पड़नेवाली यह भद्दी गाली
कितना दंश मारती है समूची मानवता को |”
समलैंगिकता अपराध ही नहीं, महा अपराध है, मानवता के प्रति कलंक है, असामाजिक संसर्ग है, दुराचार है, व्यभिचार है और कामान्धता में किया जानेवाला प्रकृति के विरुद्ध घोर नकारात्मक दुष्प्रयोग भी | विवाह और सम्भोग अपेक्षित मर्यादित भोग की श्रेणी में आता है; किन्तु समलैंगिकता निश्चित ही विकृत भोग है और यह किसी भी दृष्टि से मानवाधिकार का विषय नहीं है | पश्चिमी देशों में जब समलैंगिक बड़े-बड़े पदों पर बैठने लगे, शासन-प्रशासन में उनकी संख्या बढ़ गई, सेनाओं-न्यायालयों-संसदों-फिल्मनिर्माण-जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में उनका प्रभुत्त्व होने लगा; तब से उनके मानवाधिकार की चर्चा तेज हो गई | पर उनका कुकर्म मानवाधिकार का नहीं, मानव-धिक्कार का विषय है –-
“एक बहुत बड़ा आकाशीय
काला चश्मा पहने
यूरोप-अमेरिका की विराट आँखों ने
जब से दुनिया को देखा
ऐसी भद्दी गालियों की
बाढ़-सी आ गई |
उनकी विस्फारित
सेटेलाइट आँखों ने
खजुराहो में
बाहरी दीवारों पर उभरी
अनर्गल मैथुन-मूर्तियों को तो देखा
पर भीतर गर्भगृह में बैठे
शिव और उनकी शिवता तक
न पहुँच सकीं |
विश्वजेता चक्कर लगाने की
अहिर्निश कवायद के बाद
ज्ञान-विज्ञान-मनोविज्ञान की
इतनी आख्या-व्याख्या के बाद
आखिर, कितना दूर रह गया
अर्द्धनारीश्वर का अभिप्राय !”
( चाँद और सूरज दोनों में ग्रहण )
समलैंगिकता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय पूर्णत: सही है | उसके निर्णय में देश, समाज और मानव-जीवन में मूलभूत संस्कार की अनिवार्यता का सन्देश निहित है | यौनिक भोग में परस्पर परिपक्कव सहमति से नर-नारी के प्राक्रतिक संसर्ग की अपेक्षा होती है | उससे इतर भोग की हवस में किया जानेवाला कोई भी असंगत व्यवहार शारीरिक-मानसिक विकार है और दंडनीय अपराध माना जाना ही श्रेयष्कर है | जिन मनोरोगियों को इलाज की आवश्यकता है, वे अंगों के असंगत, अप्राकृतिक, अशिष्ट और विकारग्रस्त भोग के अधिकार की बात करते हैं, तो फिर चोरी, डकैती, लूटमार, बलात्कार, भ्रष्टाचार आदि भी कुछ लोग अपने निजी कारणों के चलते करते हैं, जिससे सामाजिकता और सांस्कारिक वातावरण ध्वस्त होता है; एक दिन उसके भी अधिकार की माँग समाज को झेलना पड़ेगा | क्योंकि वीडीओ, कम्प्यूटर, लैपटॉप, नोटपैड की स्क्रीन पर वे एक साथ डिस्को की तान में आ गए हैं —
“उल्टे मानव-निसर्ग के
कुछ लुके-छिपे, बीमार,
विषैले कीड़े-मकोड़े
जो सर्वजनीन हामी से
हमेशा बाहर फेंके जाते रहे
अपवादों के
कंधे चढ़, खड़े हो गए;
कुछ धुर काले, मुहँझौंसे,
कुलैंगिक भूत-विभूत
जो जीवन की
आम खुशनुमा गलबाँही से
सदैव निष्कासित थे
वीडीओ, कम्प्यूटर,
लैपटॉप, नोटपैड की स्क्रीन पर
एक साथ
डिस्को की तान में आ गए |”
( चाँद और सूरज दोनों में ग्रहण )
भारतीय न्यायालय की तरह भारतीय संसद से भी इस विषय पर गंभीर, व्यापक और मानवीय संस्कार के लिए श्रेय दृष्टिकोण की अपेक्षा की जाती है | अंगहीन या कमतर जन्मजात होना अथवा भौतिक कारणों से जन्म के बाद अंगहीन या कमतर हो जाना स्वाभाविक है और ऐसे मनुष्य को जीवन का न केवल पूर्ण अधिकार है, बल्कि परिवार और समाज से उसे पूरा सहयोग और सम्मान मिलना एक सभ्य और सक्षम समाज का धर्म है | ऐसे भी उदाहरण हैं कि अनेक अंगहीन या कमतर व्यक्तियों ने अपने कार्यों से देश-दुनिया को असाधारण योगदान किया है | परन्तु इधर की अतिरंजित नवीनता और अति आधुनिकता के नाम पर शारीरिक-मानसिक रूप से अक्षम-सक्षम किसी को भी यौनिक कुभोग के उसके निजी शारीरिक अमानवीय तुष्टि की छूट कैसे दी जा सकती है ! कुछ लोगों की समलैंगिकता एवं मान्य प्राकृतिक जीवन से अलग उनकी पथभ्रष्टता का समाजीकरण नहीं हो सकता | उनके कुकर्म आज से नहीं, आदिम युग से चले आ रहे हैं; किन्तु सभ्यता एवं संस्कृति का रथ-चक्र उन्हें अपवाद मानकर सदैव आगे बढ़ता रहा है |
बरसात में भीगने से बचने के लिए छतरी तान कर चलना, दाढ़ी शेव करना, मूँछे नुकीली करना या मूँछें न रखना, महिलाओं द्वारा भौंहें शेप में लाना, काजल लगाना, परिवार-नियोजन के ऑपरेशन आदि सकारात्मक आवश्यकताएँ हैं | किन्तु समलैंगिकों द्वारा अंधी यौनिक पिपासा में यौनिकता का परिक्षेत्र शारीरिक रंगमहल के दसों द्वारों से जोड़ना और क़ानून तथा समाज के सामने उसे अपना अधिकार जताना अत्याधुनिक धृष्टता के अतितिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता | इन जटिल, कुपंथी मनचलों के लिए यदि दुनिया के न्यायालयों तथा संसदों द्वारा काउंसलिंग करने का निर्देश दे दिया जाए, यदि शासन-प्रशासन द्वारा उनकी काउंसलिंग का प्रबंध कर दिया जाए और यदि समाज तथा सँस्थाओं द्वारा उसकी अनुपालना कर दी जाए तो मानव-जीवन और उसके वंश-वृद्धि की प्रकृति तथा उसकी पीढ़ी के संस्कार के प्रति बड़ा उपकार होगा |
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— संतलाल करुण
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