अंतर्नाद
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गाँस ख़ंजरशुदा हो गई
डूब सूरज गया दोपहर का
चाँदनी भी विदा हो गई |
रात अँधेरी न घर तेल-बाती
तनहा कटतीं न काटे ये रातें
लद गईं दर्द की मारी पलकें
नींद जैसे हवा हो गई |
टूटे दर्पन की तीखी दरारें
जिन पे उँगली फिराती हैं सुधियाँ
घाव फिर-फिर हरे हो रहे
गाँस ख़ंजरशुदा हो गई |
मील-पत्थर-सा ऐसा क्या जीना
खंडहर-मौत क्या मर न पाए
रोज ज़िंदा दफ़न करती अपना
ज़िन्दगी खुद सज़ा हो गई |
नाव कागज़ की ओ, खेनेवाले !
सिर्फ़ वादे ही भारी लगे क्यों ?
आँसू दिल के धुआँ हो गए
साँस जलती चिता हो गई |
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— संतलाल करुण
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