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बिच्छू के डंक-से ये दिन

अंतर्नाद
अंतर्नाद
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बिच्छू के डंक-से ये दिन


बिच्छू के डंक-से दिन ये खलते रहे

सर्प के दंश-सी रातें खलती रहीं

बंद पलकों में ले दर्द सारा पड़े

नव सृजन-सर्ग की आस पलती रही  |


अहं से हृदय काँटा हुआ जा रहा

द्वेष-दावाग्नि घर-बार पकड़े हुए

भोग की यक्ष्मा भीतर घर कर गई

रात-दिन बुद्धि के ज्वर से हम तप रहे

जैसे बढ़ते ज़हरबाद का हो असर

क्रूरता-नीचता मन की बढ़ती रही |


आँख काढ़े-सा शैतान विज्ञान का

पीसकर दाँत आगे खड़ा हो रहा

महामारी-सा रुतबा है आतंक का

डंका छलबल का चारों तरफ बज रहा

बाह्य विभुता का ऊपर से छाया नशा

दर्प-कंदर्प की हाँक चलती रही |


धृष्टता-भ्रष्टता का मुकुट सिर धरे

न्याय को पंख जैसे गरुण का लगा

शान्ति-करुणा की अर्थी उठाते हुए

भीम का कंधा ज्यों हो दुराचार का

धर्म का दर्भ मरुभूमि में जल रहा

होलिका सत्य की नित्य जलती रही |

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— संतलाल करुण

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